पूछ रही आत्माभिव्यक्ति ही
बोलो अनुभव कैसा
भाषा में हो रही पराजय
का यह उत्सव कैसा ?
शामिलबाजा होना सबमें
फिर ढोना शहनाई
खुली डायरी का लगता है
हर कोना तनहाई
मरते मरते जी लेने का
आखिर लाघव कैसा।
संस्कृति के सुनसान शहर में
सरल सभ्यता सोए
सुन्न हुए से संवेदन को
सच की सुई चुभोए
प्रतिहिंसा से भरे समय में
रघुपति राघव कैसा।
दाढ़ी बाल बढ़ाकर घूमें
पागल हुए निराला
पत्थर पर सिर पटक रही है
बच्चन की मधुशाला
नशा न देती तिल भर
पैमाने में आसव कैसा।